गुरुवार, 14 अगस्त 2008

बापू की याद

मौसम कुछ बदल रहा है
कांटों की छोड़ो
अब तो फूल चुभ रहा है ।
रंग बिरंगे नजारे हैं
फिर भी,ना जाने क्यों
दिल रो रहा है।
आंखों में हसीन सपने
फिर भी,ना जाने क्यों
डर सा लग रहा है।
दिल्ली,मुंबई,पुणे की
नियोन लाइट में
ना जाने क्यों
यवतमाल दिख रहा है।
पांचसितारा होटलों की
टेबलों पर
सूखी रोटी और प्याज
दिख रहा है।
प्यालों में तो शराब
पर गले में ना जाने क्यों
लहू उतर रहा है

आजादी को 61 साल हो गए
पर ना जाने क्यों
आज भी,हर इंसान
गुलाम दिख रहा है।
कूर्सी के पास
भीड़ बहुत है
लेकिन,आज भी बापू खूब याद आ रहा है ।

शुक्रवार, 6 जून 2008

नायक का पोस्टर ब्वॉय हो जाना

भारतीय लोक संस्कृति और गीत-संगीत एक ही नदी के दो किनारे है ।समाज जब-जब जैसे बदला गीत और संगीत की धारा भी उसके अनुसार बदली ।जहां समाज के दर्द,औऱ मजबूरी को गीतों में संजीदगी के साथ उकेरा गया वहीं गीतों के माध्यम से लोंगो के ख्वाब और खूशियों के कई अफसाने लिखे गये । हर काल और समय में समाज ने जिस दौर को भी जिया गीत,संगीत के आसरे उस कहानी को कहता रहा ।पहले लोक गीत और शास्त्रीय संगीत ने खुद को लोगो का अक्स बनाया ।बाद में इसकी ताकत को सेल्युलाइड ने ना केवल पहचाना बल्कि इस विधा का उपयोग भी किया ।ये गीत और समाज के मजबूत रिश्ते ही थे कि गाने ,सिनेमा में अब फिलर के तौर पर नहीं बल्कि इसके आसरे कहानी को नया मोड़ दिया जाने लगा । अब सिनेमा के जरिये सिर्फ गानों को नहीं बल्कि गीतों के जरीये भी रूपहले पर्दे को पहचान मिलने लगी ।जब ये दोतरफा संबंध और मजबूत हुआ,तब सिनेमा संगीत के धुन पर सजे बेहतरीन शब्दों के बूते चौपाल से आगे निकलकर लोगों के बरामदों और आंगन में जगह बनाने कामयाब में हो गया ।और तब इन गीतों को आवाज देने वाले गायकों को भी नायक के तौर पर पहचान मिलने लगी ।रूपहले पर्दे पर जहां मुकेश,रफी,लता,मन्ना डे सरीखे गायक सिनेमा और समाज के बीच पुल की तरह काम कर रहे थे वहीं इससे इतर मौशिकी और मौशिकीकारों की एक दुसरी दुनीया भी अपने तरीके से इस रिश्ते को और मजबूत कर रही थी ।बेगम अख्तर,शमशाद बेगम,बड़े गुलाम अली,मेंहदी हसन कुछ ऐसे नाम रहे जिन्होंने अपने आवाज के जरिये गीतों के इस सुनहरे फलसफे का रूहानी चेहरा दिखाया ।इन्होंने गीत के जरिये लोगो को खुदा से जोड़ा ।गीत इनके लिए हर दौर में खुदा की इबादत रही ।समाज के साथ गीत संगीत ने भी एक लम्बा अर्सा बिताया ।समय के साथ समाज में होने बदलाव को गीतों ने पहचाना और अपने को उसके अनुसार बदला भी ।कुछ बाजार की ताकत और कुछ ढलती उम्र के कारण भी गीतों के इन पुरोधाओं ने नौसिखये लेकिन जोश से लबरेज युवाओं के हाथों में अपनी विरासत सौंपी ।लेकिन अब दौर दुसरा था गाने,आवाज और संगीत से ज्यादा बाजार के आसरे रहने लगा है ।अभिजीत सावंत,हिमेश रेशमिया नायक नहीं बल्कि पोस्टर ब्वाय के तौर पर उभरे ।इनकी आवाज ऑटो से लेकर डिस्कोथेक तक गुंजने लगी है ।लेकिन डिस्कोथेक में नशे में चूर युवाओं के शोर में मध्यम वर्ग का वो नायक ना जाने कहां खो गया है। न जाने क्यों विरासत की डोर टूटती हुई महसुस होती है । लेकिन ऐसे समय में एक बार फिर राजन-साजन मिश्र,छन्नु लाल,अमजद अली खान,लता मंगेशकर जैसे बुढ़े कंधे ही सहारा देते नजर आते हैं ।ऐसे में एक सवाल बारबार कौंधता है कि क्या ये पोस्टर ब्वॉय उस नायक की जगह ले पायेगें ।

गुरुवार, 22 मई 2008

यूपीए में सोनिया के चार साल


यूपीए सरकार के चार साल पूरे हो गये ।इन चार सालों में सोनिया गांधी का कद न केवल बढ़ा है बल्कि घटक दलों में उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है ।
सोनिया इस दौरान न केवल काग्रेंस अध्यक्षा बल्कि सरकार के संकटमोचक के रूप में भी दिखाई दीं ।जब पार्टी और आम जनता के हितों की बात आई तो सीधे प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी । सरकार जब तेल की कीमतों में बढ़ोतरी को सोच रही थी उस समय ने सोनिया ने सरकार तक पार्टी और आम जनता दोनो की मांग पहुंचाई ।लेकिन जब विरोधियों ने सरकार और मनमोहन सिंह पर निशाना साधा तो उसका माकूल जवाब भी दिया । परमाणु करार के मसले पर जब वाम दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदर भी विरोध के सुर सुनाई देने लगे तो वैसे समय में सोनिया मनमोहन सिंह के साथ खड़ी दिखांई दीं ।
सरकार के इन चार सालों में मनमोहन सिंह को विपक्ष के अलावा घर के सदस्यों का भी विरोध झेलना पड़ा ।और ऐसे समय में सोनिया ने साफ किया कि मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया हैं और वो उनके हर फैसले में साथ हैं ।
इन चार सालों में कई बार ये सवाल भी उठा कि 7 रेस कोर्स रोड और 10 जनपद में आखिरकार सरकार की कमान किनके हाथ है ।पर हर मौके पर सोनिया ने प्रधानमंत्री और उस कुर्सी की महत्ता को स्थापित करने का काम किया ।
अभी हाल में जब अर्जुन सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री पद के लायक बताया तब एक बार फिर ये लगने लगा कि यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री हाशिए पर खड़े हैं लेकिन तब सोनिया ने न केवल इसे खारिज किया बल्कि पार्टी के अंदर साफ संदेश भी दिया की वो ऐसे किसी बहस को नहीं चाहती ।
मौजुदा अवसरवादी राजनीति के साथ-साथ ये सोनिया के नेतृत्व का भी कमाल था कि शरद पवार जैसे क्षत्रप जो कांग्रेस छोड़ कर गये थे आखिरकार यूपीए के झंडे के नीचे आ खड़े हुए। ये सेनिया का ही नेतृत्व था कि लालू और रामविलास जैसे नेता जो एक दुसरे के विरोधी हैं एक साथ सरकार में शामिल हुए।
लाभ के पद के आरोपों से घिरी सोनिया ने लोकसभा से इस्तीफा देकर फिर संसद पहुंची । ।सोनिया ने नैतिकता के बहाने ही सही लेकिन राजनैतिक विरोधियों को एक बार फिर पटखनी दी ।
जब पार्टी में युवाओं को मौका दिये जाने की बात चल रही थी तो लगा कहानी राहुल गांधी के आसरे ही घुमेगी लेकिन अध्यक्ष का फैसला , मां की ममता पर भारी पड़ा ।और राहुल को सीधे कुर्सी मिलने के बजाय लोगों के दिलों में जगह बनाने के लिए गांव की गलियों में उतरना पड़ा ।
ये चार साल न केवल यूपीए सरकार के हैं बल्कि सोनिया गांधी के नेतृत्व और राजनितीक कौशल के भी चार साल हैं ।जो सरकार के साथ रहते हुए भी आम जनता के लिए सरकार के विरोध में खड़ी दिखाई देती है

शनिवार, 17 मई 2008

हौसलों को सलाम


आज बात एक ऐसे इंसान की जिसके हौसले,जिसके जुनून लोगों को प्रेरणा देते हैं ।ये कहानी है दक्षिण अफ्रीका के एथलीट ऑस्कर पिस्टोरियस की ।बचपन से विकलांग पिस्टोरियस को 2007 के बेइजिंग ओलंपीक में दौड़ के लिए होने वाले क्वालीपाइंग मुकाबले में हिस्सा लेने के लिए अनुमति मिल गई है।
बिजिंग ओलंपिक के रेस में अगर एक विकलांग,बाकी दूसरे ऐथलीटों को चुनौती देता नजर आये तो चौंकियेगा नहीं । एथलीटों की दुनीया के इस नये सनसनी का नाम है ऑस्कर पिस्टोरियस ।
विकलांग वर्ग में अलग अलग मुकाबले में इनके नाम 100 मीटर,200 मीटर,400 मीटर,के विश्व रिकार्ड दर्ज हैं ।पर सब कुछ इतना आसान नहीं था ।तीन साल पहले तक पिस्टोरियस ने रेस ट्रैक पर कदम तक नहीं रखा था ।संघर्ष, ट्रैक पर सिर्फ एक खास कैटेगरी में कुछ तमगों को अपने नाम करने तक हीं नहीं था ।लड़ाई उससे कहीं बड़ी थी ।लड़ाई उस सोच से थी जो ये आभास दिलाती है कि अपंग होने के बाद ओलंपिक तो दुर कोई भी दौड़ बस एक ख्वाब की मानिंद है ।
पिस्टोरियस ने कृत्तिम पैरों के सहरे चलना सीखा और इसी के सहारे खेलों में अपनी साख भी बनायी ।इतिहास तो रचा लेकिन इसने विवाद भी खड़ा कर दिया ।
पिस्टोरियस ने मैदान के अंदर और बाहर दोनो तरफ लड़ाई लड़ी ।मैदान के अंदर जहां अपने जुनून से कुदरत की कमी को हराया वहीं मैदान के बाहर उन लोगों को हराया जिन्होंने इस ऐथलीट के अपंग होने के कारण उसके कृत्तिम पैरों पर ही सवाल खड़े कर दिए । कहा गया ये कृत्तिम पैर पिस्टोरियस को दुसरे ऐथलीटों के मुकाबले बढ़त दिलाते हैं ।
IAAF ने जून 2007 में अपने नियमों में किसी भी ऐथलीट के तकनीकी उपकरण के उपयोग पर रोक लगा दी ।जुलाई 2007 में रोम के 400 मीटर के मुकाबले को 46.60 सेरेंण्ड में पूरी कर पिस्टोरियस ने दूसरा स्थान हासिल किया,जबकि जीतने वाले ने इस दौड़ को 46.72 सेकेण्ड में पूरी । पर पिस्टोरियस की इस उड़ान पर सवाल उठने लगे ।
IAAF ने इस जाबांज के ट्रैक परर्फामेंस का हाई मोनिटेरिंग कैमरे की मदद से जायजा लिया । फिर शुरू हुआ जांच दर जांच का सिलसीला ।और 14 जनवरी 2008 को IAAF ने पिस्टोरियस को अपने मताहत आयोजित होने वाले तमाम प्रतियोगीताओं के लिए अयोग्य करार दे दिया ।
पिस्टोरियस के लिए ये कुछ ऐसा ही था कि मानो आंखों में पल रहे ख्वाब ने जवां होने को सोचा ही था कि रात का आखिरी पहर बीत गया ।पर शायद बुलंद इरादों की तासीर ही ऐसी होती है कि वो इतनी जल्दी हार नहीं मानता ।वो सपनों को मरने नहीं देता ।
तब पिस्टोरियस ने अप्रैल 2008 में स्विटजरलैंड के लुसान के खेल मामलों की अदालत में अपील की ।
और शुक्रवार को अदालत ने उस हौसले,उस जुनून का सम्मान रखा और पिस्टोरियस को क्लिन चीट दी । IAAF ने आखिरकार अपनी गलती मानी कहा कि पिस्टोरियस क्वालिफांइग मुकाबले में दौड़ सकता है ।
मुमकिन है कि पिस्टोरियस ओलंपीक ना जीत पाये पर उसके बुलंद इरादों की अब तक की कहानी इस मायने में खास है कि ये हौसला देता है तमाम चुनौतियों से लड़ने की,ये हौसला देता है सपनों को हकीकत में बदलने की,ये हौसला देता है जिंदगी को अपने तरीके से जीने की ।

सोमवार, 12 मई 2008

तेरा मेरा रिश्ता क्या है

तेरा मेरा रिश्ता क्या है
ना मुझे मालुम ना तुझे मालूम
पर ढूंढती हैं तुझे, मेरी आंखे
तकती हैं तेरा रास्ता हरदम


तु मुझे पसंद हैं,सच कहुं तो
ये भी ना मालूम
फिर भी ना जाने क्यों
तेरा साथ पसंद हैं मुझे
तेरी शोखी,तेरी अदाएं
प्रभावित नही करती मुझे
फिर भी ना जाने क्यों
मरू में भटकता
मृग बन जाता हुं मैं


तेरा मजाक ही सही
पर किनारों को छू जाता है
तूम बस औरों की तरह हो
फिर भी ना जाने क्यों
तेरा पास से गुजरना
मुझे खास बना जाता है


युं तो,मैं बहुत चौकन्ना हुं
पर जब तुम मुझे कुछ
कह रही होती हो
बस तुम्हें देखता रहता हुं
तेरे शब्द मेरे कानों तक पहुंचते ही नही
बस तेरे होठों को हिलते देखता रहता हुं


तेरे ना होने पर
तेरे होने का मतसब समझ आता है
फीर भी
तेरा मेरा रिश्ता क्या है
ना मुझे मालुम ना तुझे मालूम
पर ढूंढती हैं तुझे, मेरी आंखे
तकती हैं तेरा रास्ता हरदम

शनिवार, 10 मई 2008

आरक्षण की खुशी

लम्बे समय बाद घर बात हुई थी ।कुछ समय की कमी के कारण तो कुछ मन नहीं होता था ।ऑफिस से देर रात घर लौटो, होटल से खाना पैक कराओ और टी.वी. देखते हुए सो जाओ ।सुबह देर से जागो,आनन-फानन में तैयार हो कर दफ्तर पहुंचो और फिर वही कहानी ।
खैर उस दिन घर फोन लगाया तो अम्मा से बात हुई ।अम्मा ने बताया कि गांव से हमारे खेतों में काम करने वाली रजिया बुआ आई है ।बुआ इसलिए की हम सब बच्चे उन्हें बचपन से ही बुआ कहते थे ।रजिया बुआ से दुनिया जहान की बातें हुई ।गांव की,गांव के लोगो की,पुराने किस्सों की, उन किस्सों के नये कोपलों की ।
अब गांव भी पहले जैसा नहीं रहा,कम देर के लिए ही सही बिजली रहती है,कुछ घरों में टी.वी.की आवाजें भी गुंजने लगी है।इन कुछ घरों में उन बाभनों के घर शामिल हैं जो अपनी पुश्तैनी जमीन को बेच कर जी रहे हैं और कुछ उन छोटी जातियों के घर शामिल हैं जिनके बच्चे कम उम्र में ही बड़े होकर पंजाब के खेतों और सूरत के फैक्ट्रियों में कमाने के लिए चले गए थे ।
इस टी.वी. ने भले ही शहरों में अपराध और मानसिक अवसाद को बढ़ावा दिया हो लेकिन गांवों में इसने चाहत और सपनों को एक विस्तार दिया है ।गांव की पगडंडियों पर भी पतलुन की जगह जींस दिखने लगे हैं ।छुप-छुप कर ही सही लड़कियां क्रेजी किया रे........गुनगुनाने लगी हैं ।
खैर रजिया बुआ उस दिन बहुत खुश थी ।पुछने पर कहने लगीं की बिटवा वो दिन गये जब औरतों को जनावर समझा जाता था ।अपनी पूरी जिंदगी चौके-चुल्हे में ही खत्म हो जाती थी ।अब तो हमारा राज आने वाला है ।
मैने कहा कैसे तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ ।
कहने लगीं कि अरे सरकार ने हम लोगो को रिजर्वेशन दे दिया है। तब मेरे समझ में आया कि वो महिला आरक्षण बिल की बात कर रहीं है । मैं बस चुप-चाप सुनता रहा और वो बोलतीं रही, कि बेटा टी.वी. में बता रहे थे कि अब हमलोग के लिए कानून बनाया जा रहा है।कि अब हमलोग चुनाव लड़ सकते हैं ।और अब हम औरतों को ज्यादा मौका भी मिलेगा ।अब हम लोग के पास ज्यादा अधिकार भी होगा ।अब औरतें और भी ज्यादा ताकतवर होगीं ।और भी न जाने क्या-क्या--------------
और अंत में बुआ ने पुछा की बेटा ऐसा होगा ना लेकिन मेरे पास कोई जवाब न था और मैने बिना कुछ बोले फोन बंद कर दिया

गुरुवार, 8 मई 2008

ये आसमां तेरा है

पंख मिल गये तुम्हें,अब आसमान तेरा है
गगन का हर किनारा तेरा है


अपने सपनों को नई उड़ान दो
अपने नाम को नई पहचान दो


तुम्हें बुलंदियों को छुना है
थपेड़ों से लड़ना है
जीवन के इस सफर में
नये मुकामों को गढ़ना है


भूखी आंखें,मुखौटे लगाये चेहरे
हर मोड़ पर मिलेंगें तुम्हें
इन कांटों के बीच
इक नया रास्ता बनाना है


मंजिलें तुम्हें मुबारक हो
पर रास्तों का ख्याल रखना
आस-पास के लोगों
और बातों का ख्याल रखना


गलियां तंग ,रास्ते संकरे
सफर भी लंबा होगा
पर पास की आसान लगती
राहों से बचके रहना


उड़ो खुब उड़ो अब आसमां तेरा है
बस झूठी जिंदगी और
दुसरों के सपनों से बच के रहना

सोमवार, 10 मार्च 2008

हार गई हॉकी

दिल्ली में किक्रेट के सूरमाओं के स्वागत के फूल अभी मुरझाए भी नहीं थे कि हॉकी के कांटों ने जख्मी कर दिया ।
आखिर जिम्मेदार कौन है ?लोग कोच या हॉकी महासंघ के अध्यक्ष के पी एस गिल को दोषी मान रहे हैं ।लेकिन क्या हमलोग अपने गिरेबां में झांक रहे हैं ?क्या हमारे अंदर हॉकी बची थी? ये कोई पहली हार नही हैं ।क्या इससे पहले हॉकी के हार पर हम सड़को पर उतरे थे ?
मै जानता हूं सड़क पर उतरना हल नही हैं ।लेकिन कम से कम इससे हमारे लगाव का पता तो चलता ही है ।हॉकी के गिरते स्तर के लिए महासंघ तो जिम्मेदार है ही ,पर कम दोषी हमलोग भी नहीं ।आज हमलोग जो इस हार पर चिल्ला रहे हैं,इसकी मौत में हमारा भी बड़ा हाथ है ।क्या हमने हॉकी को वो जगह दी जो बतौर राष्ट्रीय खेल उसे मिलनी चाहीए ?
दिल पर हाथ रखिए क्या इसी देश में हॉकी के साथ सौतेला व्यवहार नही हुआ है ? क्या धोनी,सचिन और द्रविड़ की तरह हमने अपने कमरों में धनराज पिल्ले और दिलीप टिर्की की तस्वीर कभी लगाई ? गांगूली को टीम से निकाले जाने पर जिस तरह का विरोध सड़क से लेकर संसद तक हुआ क्या वही आवाज धनराज को टीम से निकाले जाने के वक्त सूनाई दी ?आज किक्रेट में बल्लेबाजों का क्रम बदल दिया जाए तो चाय के नुक्कड़ से लेकर संपादकों के कमरों में बहस होने लगती है लेकिन जब हॉकी में अनाप शनाप फैसले लिए जा रहे थे तो क्या वो सब्जी की कीमतों में हो रही बढोतरी से ज्यादा महत्वपूर्ण लग रही थी ।
हम इतिहास और गौरवशाली अतीत की बात करते हैं लेकिन क्या हमने हॉकी को अपने ही देश में धर्म का दर्जा दिया ।धोनी का सिक्सर जो राहत हमें देता है क्या वही सुकून दिलीप की पेनाल्टी दे पाती है ।सचिन का 99 पर आउट होना जिस तरह दप्तर लेट पहुंचने से ज्यादा परेशान करता है क्या वही गुस्सा सेंटर फारवर्ड के असफल हो जाने पर पैदा होता है ।----------शायद नहीं ।
इसलिए हॉकी की इस हालत के लिए हम सब जिम्मेदार हैं ।

ये समाज के नये नायक हैं ।

अनामिका,रोहनप्रीत और तन्मय ने लिटील चैम्पस प्रतियोगिता में जीत दर्ज की ।
ये एक शो के विजेता भर नहीं समाज के नये नायक हैं ।नायक इसलिए कि इन्होंने सपनों को साकार करने की राह दिखाई है ।नायक इसलिए भी कि मरियानी,पटियाला और लखनउ जैसे छोटे शहरों से आकर ये महानगरों में अपनी जीत दर्ज कराते हैं ।इन नन्हें विजेताओं की जीत बताती है कि मन में लगन और दिल में जूनुन हो तो आसमां को भी करीब लाया जा सकता है ।ये शाहरूख और अमिताभ की तरह सपनों की कोई दुनिया नहीं रचते बल्कि मासूम आंखों में देखे गये ख्वाब के सच होने की कहानी बयां करते हैं ।
ये बच्चे हाशिए पर खड़े एक बड़े तबके के हौसलों की जीत की कहानी कहते हैं ।तालियों की गड़गड़ाहट और जगमगाती रोशनी सिर्फ इनके इनके चेहरों पर ही लाली नहीं लाती बल्कि महानगरों से दूर रह रहे कई बच्चों के आंखों में सपनों की बुनियाद खड़ी करती हैं ।इनकी जीत उस मिथक को भी तोड़ती है कि मध्यम वर्ग के मां बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं ।
इनको मिले एक करोड़ से भी ज्यादा वोट ये बताते हैं कि महानगरों में रहने वाले लोग छोटे शहरों से निकले इन बड़े नायकों को सलाम कर रहा है ।इनको मिले लाखों का इनाम हाशिए पर खड़े समाज के बुलंद इरादों की कहानी कहता हैं ।
आज जबकि मध्यम वर्ग में कुछ करने की उकताहट और कुछ न कर पाने की वजह से उपजा एक आक्रोश है तो ऐसे में इनकी जीत समाज के उस तबके को खड़े होने का हौसला देता है साथ ही ये भरोसा भी कि वो किसी से कम नहीं ।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

मुंबई की सड़कों पे मचे उत्पात पर इस शहर की कहानी मुंबई की ही जुबानी

मैं मुंबई हुं--------------
किसी के लिए हादसों का शहर तो किसी के लिए सपनों की उड़ान । मैंने अपने शरीर पर कई जख्म झेले हैं ।मुझे 1993 का वो खौफनाक मंजर भी याद जब हाजी अली के सजदे और सिद्धीविनायक की आरती में साथ-साथ झूकने वाले सर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे ।मैंने भारत में आतंक की पहली दस्तक भी अपने सीने पर झेली है ।
पर तमाम हादसों के बाद मैंने इस शहर को साथ खड़े होते भी देखा है
आज कौन मुंबई का और कौन बाहर वाला इस लड़ाई ने मेरी रूह को घायल कर दिया है ।मेरे लिए दोनों अपने हैं ।जब पूरी मुंबई पानी में डूबी थी या जब आतंकी लोकल ट्रेनों में धमाके कर मुझे डराने में लगे थे तब मेरे दोनो बच्चों के आंखों में आंसू थे ।

मराठीयों नें अगर खून-पसीने से मेरी बुनीयाद खड़ी की है तो उत्तर भारतीयों ने इसे सजाया और संवारा है ।पर आज मेरे एक हाथ ही दूसरे पर वार कर रहें हैं।
मुझे राज ठाकरे और अबू आजमी के बयानों की परवाह नहीं ।लेकिन मुंबई की सड़कों पर मजलूमों के साथ हो रहा अन्नाय मुझे बौना कर देता है ।ये तोड़फोड़ मुझे आभास दिलाते हैं कि मैं खुद को इतना बड़ा न कर पाया कि मराठी और गैर मराठी दोनों को मुकम्मल जहां दिला सकुं।

इन्हें पता नहीं कि जिस आवाज के पीछे ये चल रहें हैं वो इनके बीच एक ऐसी दरार बनाना चाहता है जिस पर चलकर उसके हित पूरे हो सकें ।मुझ डर बस इस बात का है कि सपनों के इस शहर के सपने कहीं बीच रास्ते में हीं न टूट जाये ।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

कौन किसका आदमी

इसका आदमी,उसका आदमी---------------------आखिर कौन किसका आदमी ।
पत्रकारिता में ये बीमारी तो पहले से थी लेकिन अब इसने महामारी का रूप ले लिया है। कस्बों और गांवों में औरतों के आदमी हुआ करते हैं लेकिन यहां आदमीयों के आदमी हैं। अन्दर आने के लिए किसी का आदमी, बने रहने के लिए किसी का आदमी और आगे बढ़ने के लिए भी किसी का आदमी होना बेहद जरूरी है।
घर बैठ किसी के साथ सुरापान तो कर सकते हैं लेकिन दफ्तर के आहाते में किसी के साथ चाय की चुस्की भी ली तो उसके आदमी। नतीजा... आपका साथ देने वाला शख्स अगर दफ्तर में हावी है तो चौका वरना आप तत्काल प्रभाव से टीम के सोलहवें खिलाड़ी की मानिंद। चौके लगाने का दमखम रखते होंगे अपनी बला से लेकिन फिलहाल तो किस्मत पर ग्रहण लगता जान पड़ता है। मानो पेप्सी की बोतल लेकर ब्रेक का इंतजार करना ही भाग्य में बदा है।
शायद वो समय कुछ और रहा होगा जब दादा परदादा कहा करते थे कि सबसे मिलकर रहो लेकिन अब तो हालात ये है कि इधर के रहो या उधर के रहो ।पत्रकारिता में नये हैं या युं कहें कि नौसिखये हैं तो किसी का आदमी होना और भी जरूरी है। चुंकि बेलौसपन से किसी के आदमी हो जाने का खतरा बढ़ जाता है । इसलिए बचना थोड़ा मुश्किल है
डर तो है लेकिन अर्थशास्त्र की परिभाषा के अनुसार जोखिम उठाने वाले ही उद्यमी कहलाते हैं ।इसलिए आप अगर इस बीमारी को जीना सीख गये या युं कहें कि पाला बदलनें मे माहिर हो गये तो रिलांयस मोबाइल की तरह दुनिया आपकी मुट्ठी में ।
मेरे एक सहयोगी वसीम बरेलवी का एक शेर गाहे बगाहे गुनगुनाते हैं -------मेरा अहले सफर कब किधर का हो जाए,ये वो नहीं जो हर रहगुजर का हो जाए—जिने का हक सिर्फ उसी को है दुनिया में जो इधर का लगता रहे और उधर का हो जाये ।
पर सातवीं में तो मेरे मौलवी साहब ने बताया था कि आदमी तो वही है जो इसका भी रहे और उसका भी हो।पर छोटे से अनुभव और कइ अपरिचित कहानियों के बाद अब मौलवी साहब झूठे और बोमानी लगने लगे हैं ।