गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

मुंबई की सड़कों पे मचे उत्पात पर इस शहर की कहानी मुंबई की ही जुबानी

मैं मुंबई हुं--------------
किसी के लिए हादसों का शहर तो किसी के लिए सपनों की उड़ान । मैंने अपने शरीर पर कई जख्म झेले हैं ।मुझे 1993 का वो खौफनाक मंजर भी याद जब हाजी अली के सजदे और सिद्धीविनायक की आरती में साथ-साथ झूकने वाले सर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे ।मैंने भारत में आतंक की पहली दस्तक भी अपने सीने पर झेली है ।
पर तमाम हादसों के बाद मैंने इस शहर को साथ खड़े होते भी देखा है
आज कौन मुंबई का और कौन बाहर वाला इस लड़ाई ने मेरी रूह को घायल कर दिया है ।मेरे लिए दोनों अपने हैं ।जब पूरी मुंबई पानी में डूबी थी या जब आतंकी लोकल ट्रेनों में धमाके कर मुझे डराने में लगे थे तब मेरे दोनो बच्चों के आंखों में आंसू थे ।

मराठीयों नें अगर खून-पसीने से मेरी बुनीयाद खड़ी की है तो उत्तर भारतीयों ने इसे सजाया और संवारा है ।पर आज मेरे एक हाथ ही दूसरे पर वार कर रहें हैं।
मुझे राज ठाकरे और अबू आजमी के बयानों की परवाह नहीं ।लेकिन मुंबई की सड़कों पर मजलूमों के साथ हो रहा अन्नाय मुझे बौना कर देता है ।ये तोड़फोड़ मुझे आभास दिलाते हैं कि मैं खुद को इतना बड़ा न कर पाया कि मराठी और गैर मराठी दोनों को मुकम्मल जहां दिला सकुं।

इन्हें पता नहीं कि जिस आवाज के पीछे ये चल रहें हैं वो इनके बीच एक ऐसी दरार बनाना चाहता है जिस पर चलकर उसके हित पूरे हो सकें ।मुझ डर बस इस बात का है कि सपनों के इस शहर के सपने कहीं बीच रास्ते में हीं न टूट जाये ।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

कौन किसका आदमी

इसका आदमी,उसका आदमी---------------------आखिर कौन किसका आदमी ।
पत्रकारिता में ये बीमारी तो पहले से थी लेकिन अब इसने महामारी का रूप ले लिया है। कस्बों और गांवों में औरतों के आदमी हुआ करते हैं लेकिन यहां आदमीयों के आदमी हैं। अन्दर आने के लिए किसी का आदमी, बने रहने के लिए किसी का आदमी और आगे बढ़ने के लिए भी किसी का आदमी होना बेहद जरूरी है।
घर बैठ किसी के साथ सुरापान तो कर सकते हैं लेकिन दफ्तर के आहाते में किसी के साथ चाय की चुस्की भी ली तो उसके आदमी। नतीजा... आपका साथ देने वाला शख्स अगर दफ्तर में हावी है तो चौका वरना आप तत्काल प्रभाव से टीम के सोलहवें खिलाड़ी की मानिंद। चौके लगाने का दमखम रखते होंगे अपनी बला से लेकिन फिलहाल तो किस्मत पर ग्रहण लगता जान पड़ता है। मानो पेप्सी की बोतल लेकर ब्रेक का इंतजार करना ही भाग्य में बदा है।
शायद वो समय कुछ और रहा होगा जब दादा परदादा कहा करते थे कि सबसे मिलकर रहो लेकिन अब तो हालात ये है कि इधर के रहो या उधर के रहो ।पत्रकारिता में नये हैं या युं कहें कि नौसिखये हैं तो किसी का आदमी होना और भी जरूरी है। चुंकि बेलौसपन से किसी के आदमी हो जाने का खतरा बढ़ जाता है । इसलिए बचना थोड़ा मुश्किल है
डर तो है लेकिन अर्थशास्त्र की परिभाषा के अनुसार जोखिम उठाने वाले ही उद्यमी कहलाते हैं ।इसलिए आप अगर इस बीमारी को जीना सीख गये या युं कहें कि पाला बदलनें मे माहिर हो गये तो रिलांयस मोबाइल की तरह दुनिया आपकी मुट्ठी में ।
मेरे एक सहयोगी वसीम बरेलवी का एक शेर गाहे बगाहे गुनगुनाते हैं -------मेरा अहले सफर कब किधर का हो जाए,ये वो नहीं जो हर रहगुजर का हो जाए—जिने का हक सिर्फ उसी को है दुनिया में जो इधर का लगता रहे और उधर का हो जाये ।
पर सातवीं में तो मेरे मौलवी साहब ने बताया था कि आदमी तो वही है जो इसका भी रहे और उसका भी हो।पर छोटे से अनुभव और कइ अपरिचित कहानियों के बाद अब मौलवी साहब झूठे और बोमानी लगने लगे हैं ।