सोमवार, 10 मार्च 2008

हार गई हॉकी

दिल्ली में किक्रेट के सूरमाओं के स्वागत के फूल अभी मुरझाए भी नहीं थे कि हॉकी के कांटों ने जख्मी कर दिया ।
आखिर जिम्मेदार कौन है ?लोग कोच या हॉकी महासंघ के अध्यक्ष के पी एस गिल को दोषी मान रहे हैं ।लेकिन क्या हमलोग अपने गिरेबां में झांक रहे हैं ?क्या हमारे अंदर हॉकी बची थी? ये कोई पहली हार नही हैं ।क्या इससे पहले हॉकी के हार पर हम सड़को पर उतरे थे ?
मै जानता हूं सड़क पर उतरना हल नही हैं ।लेकिन कम से कम इससे हमारे लगाव का पता तो चलता ही है ।हॉकी के गिरते स्तर के लिए महासंघ तो जिम्मेदार है ही ,पर कम दोषी हमलोग भी नहीं ।आज हमलोग जो इस हार पर चिल्ला रहे हैं,इसकी मौत में हमारा भी बड़ा हाथ है ।क्या हमने हॉकी को वो जगह दी जो बतौर राष्ट्रीय खेल उसे मिलनी चाहीए ?
दिल पर हाथ रखिए क्या इसी देश में हॉकी के साथ सौतेला व्यवहार नही हुआ है ? क्या धोनी,सचिन और द्रविड़ की तरह हमने अपने कमरों में धनराज पिल्ले और दिलीप टिर्की की तस्वीर कभी लगाई ? गांगूली को टीम से निकाले जाने पर जिस तरह का विरोध सड़क से लेकर संसद तक हुआ क्या वही आवाज धनराज को टीम से निकाले जाने के वक्त सूनाई दी ?आज किक्रेट में बल्लेबाजों का क्रम बदल दिया जाए तो चाय के नुक्कड़ से लेकर संपादकों के कमरों में बहस होने लगती है लेकिन जब हॉकी में अनाप शनाप फैसले लिए जा रहे थे तो क्या वो सब्जी की कीमतों में हो रही बढोतरी से ज्यादा महत्वपूर्ण लग रही थी ।
हम इतिहास और गौरवशाली अतीत की बात करते हैं लेकिन क्या हमने हॉकी को अपने ही देश में धर्म का दर्जा दिया ।धोनी का सिक्सर जो राहत हमें देता है क्या वही सुकून दिलीप की पेनाल्टी दे पाती है ।सचिन का 99 पर आउट होना जिस तरह दप्तर लेट पहुंचने से ज्यादा परेशान करता है क्या वही गुस्सा सेंटर फारवर्ड के असफल हो जाने पर पैदा होता है ।----------शायद नहीं ।
इसलिए हॉकी की इस हालत के लिए हम सब जिम्मेदार हैं ।

ये समाज के नये नायक हैं ।

अनामिका,रोहनप्रीत और तन्मय ने लिटील चैम्पस प्रतियोगिता में जीत दर्ज की ।
ये एक शो के विजेता भर नहीं समाज के नये नायक हैं ।नायक इसलिए कि इन्होंने सपनों को साकार करने की राह दिखाई है ।नायक इसलिए भी कि मरियानी,पटियाला और लखनउ जैसे छोटे शहरों से आकर ये महानगरों में अपनी जीत दर्ज कराते हैं ।इन नन्हें विजेताओं की जीत बताती है कि मन में लगन और दिल में जूनुन हो तो आसमां को भी करीब लाया जा सकता है ।ये शाहरूख और अमिताभ की तरह सपनों की कोई दुनिया नहीं रचते बल्कि मासूम आंखों में देखे गये ख्वाब के सच होने की कहानी बयां करते हैं ।
ये बच्चे हाशिए पर खड़े एक बड़े तबके के हौसलों की जीत की कहानी कहते हैं ।तालियों की गड़गड़ाहट और जगमगाती रोशनी सिर्फ इनके इनके चेहरों पर ही लाली नहीं लाती बल्कि महानगरों से दूर रह रहे कई बच्चों के आंखों में सपनों की बुनियाद खड़ी करती हैं ।इनकी जीत उस मिथक को भी तोड़ती है कि मध्यम वर्ग के मां बाप अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं ।
इनको मिले एक करोड़ से भी ज्यादा वोट ये बताते हैं कि महानगरों में रहने वाले लोग छोटे शहरों से निकले इन बड़े नायकों को सलाम कर रहा है ।इनको मिले लाखों का इनाम हाशिए पर खड़े समाज के बुलंद इरादों की कहानी कहता हैं ।
आज जबकि मध्यम वर्ग में कुछ करने की उकताहट और कुछ न कर पाने की वजह से उपजा एक आक्रोश है तो ऐसे में इनकी जीत समाज के उस तबके को खड़े होने का हौसला देता है साथ ही ये भरोसा भी कि वो किसी से कम नहीं ।