सोमवार, 16 मार्च 2009

देह के आसरे प्रेम

अनुराग कश्यप युवा और प्रयोगधर्मी फिल्मकार हैं । अनुराग की नयी फिल्म देव-डी हाल ही में रीलिज हुई है । ये फिल्म ना केवल कई सवाल खड़े करती है बल्कि कई मायनों में आम मसाला फिल्मों से अलग नजर आती है ।
ज्यों-ज्यों फिल्म आगे बढ़ती है या यूं कहें कि जिस तरह पात्र या पात्र की सोच कहानी के हिसाब से बदलती है वैसे-वैसे ही सवाल ना केवल बड़े होते जाते हैं बल्कि कहानी इन सवालों को सत्यापित भी करती जाती है ।
इस फिल्म की शुरूआत में एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रेम को देह के ही आसरे आगे ले जाया जा सकता है या फिर प्रेम के संबंधों में देह बड़ी अहम भुमिका निभाता है ।

अनुराग यहीं नहीं रूकते , सदियों से सेक्स के पुरूषवादी चेहरे से उलट वो स्त्रीयों के मन की इच्छा भी इस फिल्म में बड़े बेबाकी से कहते हैं । ये फिल्म , आदमी की , औरत के सिर्फ उसकी होकर रहने की इच्छा और अंतरंग संबंधों पर शक के हावी होने की कहानी भी कहती है ।
हो सकता है अनुराग को इस फिल्म का प्लॉट समाज में घटी अलग-अलग घटनाओं से मिली है पर बड़ा सवाल ये है कि , क्या अनुराग जो कुछ इस कहानी के जरिये कह रहे हैं वो सब कुछ इस समाज में चल रहा है या फिर ये एक प्रयोगधर्मी निर्देशक का एक और सिनेमाई प्रयोग भर है ।
बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच आज का युवा प्यार , देह की गंध में इतना हिल-मिल गया है कि इस गंध से इतर उनके लिये प्यार में रूमानियत बाकी ही नहीं रह जाता है ।
अनुराग , एक रईस नायक , उसके प्यार में पागल एक लड़की और मजबूरी में मिली जिंदगी को जीने को विवश एक युवती के जरीये समाज के उस सच को कहते हैं जिसे बहुत आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
इसलिए ये जानना जरूरी है कि, फिल्म की नायिका पारो के जरिये अनुराग जो कुछ कहलवा रहे हैं क्या ये डोर सचमुच महिलाओं की एक बड़ी तादाद को अपने घेरें में लेती है । या फिर अनुराग , चंद पश्चिम प्रेमी महिलाओं की इच्छाओं को पंजाब के मिट्टी के जरिये बयां कर रहे हैं । एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्यों पुरूष तमाम आधुनिकता का चोला पहनने के बावजुद आज भी प्यार में हिस्सेदारी को लेकर तैयार नहीं है और वो भी तब जब वो खुद एक संबंधों को जीते हुये उसे किसी दुसरे संबंध से भी गुरेज नहीं है । और शायद तभी ये सवाल वाजिब लगता है कि क्या आज भी प्रेम को जीने या संबंधों को दूर तक ले जाने के लिये पुरूषों और स्त्रियों की जिम्मेदारी की परीभाषा अलग-अलग है ।
फिल्म के दुसरे भाग में सहनायिका चंदा की जुबानी अनुराग शराब और सिगरेट के नशीले माहौल में गंभीर बात कह जाते हैं । चंदा कहती हैं कि ‘अगर उसके पिता ने आत्महत्या ना की होती तो शायद वो आज यहां ना होती “ ।
सवाल बड़ा है कि नादानी या फिर अनजाने रोमांच को जीने के दौरान हुई गलती को समाज जिस तरह से देखता है क्या वो उचित है । या फिर इस तरह की गलती की जड़ में बदलते और टूटते पारिवारीक मूल्यों का भी हाथ है ।
आम तौर पर सिनेमा की कहानी किसी सोच या घटना के आसरे गढ़ी जाती है और कल्पना के ताने-बाने में लपेट कर उसके अंजाम तक पहुंचायी जाती है । पर देव-डी कई अलग-अलग मुद्दों पर ना केवल युवा सोच को बताती है बल्कि बहस का एक सिरा खुला भी छोड़ जाती है ।