बुधवार, 3 जून 2009

मीरा और दलित पहचान


मीरा कुमार पंद्रहवीं लोकसभा में स्पीकर की कुर्सी पर बैठकर सांसदों को सदन में सहयोग के लिये निर्देश देती दिखेंगी । पर कांग्रेस और खासकर सोनिया गांधी द्वारा मीरा कुमार के नाम को स्पीकर पद के लिये मंजूरी देने ने कई सवाल खड़े किये हैं । एक बात साफ कर दुं कि सोनिया गांधी का नाम सिर्फ इसलिये नहीं कि क्योंकी वो मीरा कुमार के नाम को मंजूरी देने वाली पार्टी की अध्यक्षा हैं बल्कि इसलिये भी कि मीरा कुमार जब पहली बार आसन संभालने को तैयार थी तो सोनिया गांधी हंसते हुये दोनो हाथों से मेज थपथपाकर कर स्वागत कर रही थीं ।हालांकि मुझे ये नहीं मालूम उस समय सोनिया को अपना कोई राजनैतिक फायदा याद आ रहा था या फिर पहले प्रतिभा पाटिल और अब मीरा कुमार को एक अहम पद दिलाने में मिली कामयाबी की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी । पर बड़ा सवाल ये है कि क्या मीरा कुमार के स्पीकर बनने के बाद दलित पहचान,संसदिय राजनीति के आसरे एक खास मुकाम तक पहुंच चुकी है । या फिर संसदीय राजनीति की नजर दलित पहचान को एक मुकाम पर पहुंचाने के बहाने वोट बैंक पर टिकी है । अंबेडकर,लोहिया,जगजीवन राम,कर्पूरी ठाकुर,
काशीराम,मायावती,रामविलास पासवान कई ऐसे नाम रहे जिन्होंने दलित आंदोलन या दलित पहचान को ना केवल अपने तरीके से बनाये रखा बल्कि इस पहचान की डोर को मजबूत भी करते रहे । ये तमाम लोग दलितों की ना केवल समाजिक स्वीकार्यत्ता और आर्थिक सुरक्षा पर जोर देते रहे बल्कि संसदीय राजनीति में भी दलित पहचान की डोर मजबूत रहे इसका ख्याल भी रखा । हालांकि रामविलास पासवान और मायावती का ध्यान इस डोर को मजबूत करने के बजाये इसके आसरे संसदीय राजनीति में अपनी पैठ मजबूत करने पर ज्यादा रही । पर अनजाने में ही सही पासवान और माया की मजबूती ने दलितों को कम से कम उनके ताकतवर होने का आभास तो करया ही । ये दलितों के ताकतवर होने का ही परिणाम है कि जब इन्हें लगा कि रोजी-रोटी और काम के लिये लिये पासवान से बेहतर विकल्प नीतीश हैं तो उन्होंने पासवान को खारिज करने में देर ना लगाई । यही बहनजी के राज में भी देखने को मिला । मायावती ये कहती रहीं हैं कि उनकी सत्ता दरअसल दलितों के ताकत की पहचान है । और सचमुच ये दलित के ताकतवर होने की ही पहचान है कि उन्होंने माया के खोखले दावों पर भरोसा नहीं किया । इस बार के लोकसभा चुनाव में यूपी की कुल आरक्षित सीटों में से बीएसपी को आधे से भी कम सीटों पर सफलता मिली है । इसमें कोई दो राय नहीं कि संसदीय राजनीति में दलित मजबूत हुए हैं लेकिन सत्ता,ताकत और अधिकार के बंटवारे में अभी भी कोसों चलना होगा । ये भी सच है कि इस चुनाव से पहले तक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला नाम नये पहचान के साथ उभरा है ।लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये कि क्या मीरा कुमार के स्पीकर बनने को दलित पहचान को मिले आखिरी मुकाम के रूप में देखा जाए । अभी तो इतना कहा ही जा सकता है कि दलित पहचान की इस डोर और लोकसभा स्पीकर की कुर्सी के बीच अभी भी दूरी बहुत है ।

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