मंगलवार, 2 जून 2009

समय कुछ करने का

जीत का शोर और हार का विलाप दोनो लगभग थम चुका है । या यूं कहे कि जीत का एक सिरा अब जिम्मेदारी की डोर से जुड़ने लगा है और दूसरी तरफ हार पर आंसू बहाने के बाद कारणों की जांच हो रही है । लेकिन इससे इतर एक बड़ा सवाल अपने जवाब की उम्मीद लगाये बैठा है। क्या ये लोकसभा चुनाव सिर्फ इस मायने अलग रहा कि कई नये ताजे चेहरे अब संसद की गलियारों में घूमेगें,क्या ये चुनाव सिर्फ इसलिये अलग रहा कि जनादेश से साबित हो गया कि नेतृत्व कमजोर हाथों में नहीं या सिर्फ इसलिये अलग रहा कि बिना किसी नीति और एजेडें के जनता सेवा का मौका नहीं देने वाली । या फिर इससे इतर अब भारत की जनता बदलाव देखना चाहती है । ये सवाल इसलिये भी जरूरी है कि इस लोकसभा चुनाव के परिणाम ने कई मिथक को तोड़ा है । जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी के रिजल्ट तो इसी ओर इशारा करते हैं । प्रचार के दौरान कई ताकतें करीब आयी तो कई पुराने साथी अलग हुये । पर जनता ने काम को और काम करने वाले को मौका दिया । कई क्षत्रप मजबूत होकर उभरे तो कई जनता के जनादेश की आंधी में उड़ से गये । नवीन पायनायक को बीजेपी का पुराना साथ छोड़ने पर भी कोई नुकसान नहीं हुआ तो राजेशेखर रेड़्डी भी वापस लौटे । ऐसा नहीं है कि ये बीजेपी का विरोध था बल्कि ये विकास को सर्पोट था । कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को मिली सफलता ये साबित करती है । इस चुनाव में कई पुराने किले भी टूटे । केरल और बंगाल के परिणाम ने साबित कर दिया कि सिस्टम में सुधार और बदलाव की ना केवल बातें होनी चाहिये बल्कि वो दिखना भी चाहिये । नीतीश को बेहतर काम-काज का फायदा मिला । तो दिल्ली को अघोरे लालू और पासवान की जोड़ी को एक बार फिर बिहार लौटना पड़ा । पर ऐसा नहीं है कि बिहार की जनता ने नीतीश को अधिनायक मान लिया है । नीतीश के पूरी ताकत लगाने के बावजूद दिग्विजय सिंह निर्दलीय जीते । यूपी ने भी बताया कि एक बार और पुराने प्रयोग को अपनाया जाये । यूपी में कांग्रेस ने उन सीटों पर जीत दर्ज की जो बीएसपी का गढ़ समझा जाता है ।दलितों की मसीहा कहने वाली मायावती की जमीन कितनी खोखली है कि सूबे की सुरक्षित सीटों पर उनके पांच उम्मीदवार भी जीत नहीं सके।महाराष्ट्र में कांग्रेस के खाते गढ़चिरौली जैसी कई ऐसी सीटें आयी जो उन्होंने दशकों से नहीं जीती थी। इन चुनाव परिणामों में ही एक बड़ा सवाल छुपा है कि क्या जनता ने बदलाव की उम्मीद लगाये जो कमान नये रंगरूटों को सौंपा है क्या वो पूरा हो पायेगा ? ये सवाल इसलिये भी अहम है कि आम जनता की अगर ये उम्मीद टूटती है तो शायद हाशिये पर धकेले गये नेता,नारे,और नीति सब फिर से हावी हो जायेगें । इसलिये अब आमोद और जीत के शोर को खत्म कर पहल की जानी चाहिये । पहल विकास का,पहल बदलाव का,पहल साथ जोड़ने का,पहल भारत को बदलने का । और ये जिम्मेदारी संसद के नैनिहालों और बुजुर्गों दोनो की है । और अगर इसमें चूके तो ना केवल जनमत के साथ धोखा होगा बल्कि अगले बदलाव के लिये शायद लंबा इंतजार करना पड़ जाये ।

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